एकला चलो रे..!

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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

स्वीकारने से कायम होगी सद्भावना


[परिवर्तन शाश्वत हैं और नितांत आवश्यक भी. प्रत्येक पीढ़ी अपने साथ बदलाव का झनकार लाती है. पर इस स्वर में मधुरता का अनुशासन ना हो तो यह कालांतर में अप्रासंगिक हो जाती है. इस बदलाव में जरूरी है कि कुछ शाश्वत मूल्य जो मानवता से उपजे है उन्हें अछूता रहने दिया जाये. सदाग्रह के औपचारिक पहले लेख में आदरणीय रोहित जी इस प्रवृत्ति पर लिखते हैं कि जैसे 'युवा बयार' का 'सब-कुछ' खारिज करने पर जोर है आजकल . 'सब-कुछ' कैसे खारिज किया जा सकता है..? कम-से-कम उन जीवन-मूल्यों की उपेक्षा तो नहीं की जा सकती जिन्हें ना जाने कितनी पुरातन पीढ़ियों ने अपने रक्त-स्वेद से सींचा है ताकि एक मानवीय संस्कृति बनी रहे और वाद के विवाद से होते हुए संवाद की प्रक्रिया अनवरत चलती रहे. आवश्यकता है एक 'स्वीकार-भाव' की जो क्षण भर ठहर कर कम से कम विश्लेषण कर पाने भर का स्पेस देती रहे और जिससे हमें सदा-सर्वदा 'शुभ' की प्राप्ति होती रहे. यह बिना बापू के 'सद्भावना' वाले मन के नहीं होगी; सद्भावना ही सत्य की वह अजस्र उर्जा देगी जो 'नयी बयार' से मौलिक उपलब्धियां उपजाती रहेगी....... ]


इक्कीसवीं सदी को न जाने कितने नामों से नवाजा जा रहा है। कोई इसे सूचना की सदी, कोई ज्ञान की, कोई प्राकृतिक आपदाओं की, तो कोई जनसंख्या विस्फोट की सदी बता रहा है। अभी एक दशक बीतने में सदी का एक साल शेष है। किसके नाम यह सदी रहेगी इसका निर्धारण तो बाइसवीं सदी के आरम्भ में ही होगा। मगर इतना जरूर है कि यह सदी जब अपनी उम्र पूरी करेगी तो बहुत सारी मान्यताओं, परंपराओं और बहुत सारे सिंद्धांतों को खारिज करने का श्रेय लूट चुकी होगी। इतना तय है कि इक्कीसवीं सदी खारिज करने की सदी के रूप में अवश्य जानी जाएगी। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले दशक में ही जो कुछ है, उसे खारिज करने की होड़ सी मची है। यह होड़ व्यक्ति से होकर समाज, समाज से देश और देश से सभ्यता तक पहुंचने की ओर अग्रसर है। जीवन मूल्य खारिज करने की होड़ तो ऐसी है कि लोगों को सब बकवास दिखने लगा है। इसमें नई पीढ़ी ही नहीं खुद को परिपक्व और आजादी के बाद की पहली पीढ़ी कहने वाली प्रौढ़ पीढ़ी भी शामिल है।

.... अर्थात सत्य, प्रेम, करुणा को अमर हम त्रिदेव मान लें तो इनकी जो संयुक्त रचना होगी, उसे हम सद्भावना कह सकते हैं। यही सद्भावना मनुष्य को मनुष्य बनाए रखती है और जंगली मानुष को मानुष बनता है। लेकिन संकट यही है कि सबसे पहले सद्भावना के खात्मे की कोशिश की जाती है।

विद्वानों का मत रहा है कि समाज के मूल्य-नैतिकता आदि समय सापेक्ष होते हैं। इसलिए पुराने मुल्यों को खारिज कर नए मूल्यो को स्थापित करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। लेकिन क्या सचमुच जीवन मूल्य भी समय और समाज के सापेक्ष होते हैं या बदलते रहते हैं। यह सवाल ऐसा है जिस पर परिवर्तन की आंधी (तूफान) लाने की इच्छा रखने वाले ‘नायकों’ को भी ठहरकर सोचने की जरूरत है। मनुष्य ने जबसे खुद को वनमानुष (जंगली) से ‘मानुष’ होने का दावा किया है, तब से अब तक किसी भी समाज (पूरब या पश्चिम) के मानवीय मूल्यों में सत्य, प्रेम, करुणा शाश्वत रूप से विद्यमान रहे हैं। जब भी इन जीवन मूल्यों को खारिज करने की कोशिश होती है मानवता शर्मसार होती है। लौकिक-अलौकिक, ऐतिहासिक-पौराणिक कथाओं में जिन सत्ताओं की उपस्थिति है। उन सबमें ‘भाव’ को अवश्य ही जगह मिली है। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा गुनाह करने वाले आदमी की मंशा अगर अच्छी हो तो दुनिया का हर समाज और उसका कानून उस पर रहम करता है। अर्थात सत्य, प्रेम, करुणा को अमर हम त्रिदेव मान लें तो इनकी जो संयुक्त रचना होगी, उसे हम सद्भावना कह सकते हैं। यही सद्भावना मनुष्य को मनुष्य बनाए रखती है और जंगली मानुष को मानुष बनता है। लेकिन संकट यही है कि सबसे पहले सद्भावना के खात्मे की कोशिश की जाती है। वर्धा के निकट गांधी का सेवाग्राम है। गांधी गुजरात में पैदा हुए मगर उनका सेवाग्राम महाराष्ट्र में है। गांधी और महाराष्ट्र इसलिए भी याद आ रहा है क्योंकि गांधी के जन्म महीने में महाराष्ट्र में ‘मानुषों’ में विभेदीकरण की पद्धति से चुनावी जंग जीतने के लिए सारे उद्यम किए जा चुके हैं। गांधी जी होते तो मुंबई में प्रवेश की परमिट (जैसा कि दलों के घोषणा पत्र में है) का उल्लंघन करने वाले पहले व्यक्ति होते। 



ऐसा तब है जब वर्ष 2008 को महाराष्ट्र खासकर मुंबई वाले भुगत चुके हैं। स्मृतिदंश के शिकार और भारतीय समाज सिर्फ कुछ महीने पीछे चले तो फरवरी 2008 दिखाई देगी, जब ‘ठाकरों’ की ठाकुरसुहाती ने भारतीय गणराज्य के अस्तित्व को चुनौती दी। कुछ छोकरों ने कुछ ठाकरों के उकसाने पर उन पुरबहियों को जान लेने का अभियान चलाया। जिन्होंने अपने पसीने से मुंबई की मायानगरी को चमकाया है। और जब उस पर आंच आई तो जान देकर बचाया भी। गांधी का नाम लेकर चलने वाली कांग्रेस केंद्र और प्रदेश में हुकूमत के बावजूद सब कुछ बर्दाश्त करती रही। उसने न तो सत्य का पालन किया और न ही करुणा और प्रेम का ही उदाहरण पेश किया। वर्ष 2008 के आखिर में 26/11 भी हो गया। तब इन ठाकुरों को पता नहीं चला। पूरा देश मुंबई को अपना समझ उसके दर्द का साझीदार बना। अभी 11 महीने भी नहीं बीते वहां एक राजनीतिक शक्ति केंद्र (शिवसेना, मनसे, भाजपा) ‘मराठी मानुष’ का नारा देने लगे और पूरा चुनाव इसी के ईग-गिर्द कर लिया। गांधी के नाम पर चलने वाली कांग्रेस चुप है। तो हम और आप तमाशबीन बने हैं, जसे बाकी दल। हैरत है कि अभिनेता, नेता बन रहे हैं। तो नेता भी अभिनय में माहिर दिख रहे हैं। विजयादशमी के दिन दिल्ली के सुभाष मैदान में अद्भुत दृश्य दिखा। (माफ कीजिए ऐसा मैने टीवी पर देखा है) प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी मंच पर ‘राम’ की आरती उतार रहे थे। मुझे लगा कि ये रामलीला के कलाकारों से कहीं कमतर कलाकार नहीं हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यही विभूतिद्वय है जिन्होनें दो-तीन वर्ष पहले कहा था कि जब राम ही नहीं तो रामसेतु कैसा? जब राम नहीं हैं तो किस राम की आरती उतार रहे थे। भारत के प्रधानमंत्री? कहने वाले कहते है कि इससे सद्भावना कायम होगी। आप भी उम्मीद कीजिए, हम भी कर रहे हैं कि सद्भावना कायम होगी। मगर यह तो सत्य है कि सद्भावना खारिज करने से नहीं, स्वीकारने से कायम होगी। तब फिर वही गांधी याद आते हैं। गांधी के लिए राम को स्वीकारने और अल्लाह को समान आदर देने में कोई संकोच नहीं हुआ। क्योंकि उनकी भावना सद् थी सत् पर आधारित थी। इसलिए जीवन को अभिनय की तरह नहीं यथार्थ को तरह वे जीए, तभी कह सके ‘मेरा जीवन ही विचार है।’

{ ऊपर की फोटो में रोहित पाण्डेय; गाँधी स्केच : साभार गूगल }
रोहित पाण्डेय
9811586622
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

5 टिप्‍पणियां:

Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…

सदाग्रह की पहली औपचारिक पोस्ट, योजनानुसार गाँधीजी के जन्मदिन के शुभ अवसर पर की गयी है...इसमे एक शुभाशा और सदाग्रह ही है...

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

चिट्ठा जगत मे आपका स्वागत है,आशा है कि आप लेखो के माध्यम से चिट्ठा जगत को सम्रिद्ध करेगे,बधाई सही दिन चुनने के लिए,

बेनामी ने कहा…

hails!to u

Unknown ने कहा…

Bahut barhia... isi tarah likhte rahiye

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Jayram Viplav ने कहा…

swagat hai blog jagat mein sadbhawna kee aawashyakta bhi hai ............